कभी कभी घिर जाते हैं हम गहरे किसी दलदल में, फँस जाते हैं जिंदगी के चक्के किसी कीचड़ में, तब जिंदगी चलती भी है तो रेंगकर, लगता है सब रुका हुआ सा। बेहोशी में लगता है सब सही है, पता नहीं रहता अपने होने का भी, तब बेहोशी हमें पता नहीं लगने देती कि होश पूरा जा चुका है। ठीक भी है बेहोशी ना हो तो पता कैसे लगाइएगा की होश में रहना क्या होता है, विपरीत से ही दूसरे विपरीत को प्रकाश मिलता है अन्यथा महत्व क्या रह जायेगा किसी भी बात का फिर तो सही भी ना रहेगा गलत भी ना रहेगा सब शून्य रहेगा। बेहोशी भी रूकती नहीं हमेशा के लिए कभी आते हैं ऐसे क्षण भी जब एक दम से यूटूर्न मार जाती है आपकी नियति, आपको लगता है जैसे आँधी आयी कोई और उसने सब साफ कर दिया, बेहोशी गिर गयी धड़ाम से जमीन पर, आपसे अलग होकर। अभी आप देख पा रहे हो बाहर की चीजें साफ साफ, आपको दिख रहा है कि बेहोशी में जो कुछ चल रहा था वो मेरे भीतर कभी नही चला। जो भी था सब बाहर की बात थी, मैं तो बस भूल गया था खुद को बेहोशी में, ध्यान ना रहा था कि सब जो चल रहा था कोई स्वप्न था। खैर जो भी था सही था, जैसी प्रभु की इच्छा, जब मन किया ध्यान में डुबो दिया जब मन कि
मानव स्वभाव में भौतिक विज्ञान के जीवंत उदाहरण देखे जा सकते हैं,
क्रोध में एक व्यक्ति जब दूसरे व्यक्ति को अपशब्द कहता है
तो वह दूसरा व्यक्ति गति के तीसरे नियम और
पहले व्यक्ति के मुख से निकले शब्द प्रकाश परावर्तन का पालन करते हैं।
जितने घटिया शब्द पहला व्यक्ति जितनी तीव्रता से छोड़ेगा,
इतनी ही तीव्रता से दूसरा व्यक्ति मिले हुए शब्दों से भी अधिक घटिया शब्द उत्तर में छोड़ देगा।
वैसे क्रोध एकांत में भस्म कर देने की चीज़ है,
इसे चार लोगों के सामने प्रकट करने से आपके व्यक्तित्व की हानि होती है।
~ #ShubhankarThinks
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