कभी कभी घिर जाते हैं हम गहरे किसी दलदल में, फँस जाते हैं जिंदगी के चक्के किसी कीचड़ में, तब जिंदगी चलती भी है तो रेंगकर, लगता है सब रुका हुआ सा। बेहोशी में लगता है सब सही है, पता नहीं रहता अपने होने का भी, तब बेहोशी हमें पता नहीं लगने देती कि होश पूरा जा चुका है। ठीक भी है बेहोशी ना हो तो पता कैसे लगाइएगा की होश में रहना क्या होता है, विपरीत से ही दूसरे विपरीत को प्रकाश मिलता है अन्यथा महत्व क्या रह जायेगा किसी भी बात का फिर तो सही भी ना रहेगा गलत भी ना रहेगा सब शून्य रहेगा। बेहोशी भी रूकती नहीं हमेशा के लिए कभी आते हैं ऐसे क्षण भी जब एक दम से यूटूर्न मार जाती है आपकी नियति, आपको लगता है जैसे आँधी आयी कोई और उसने सब साफ कर दिया, बेहोशी गिर गयी धड़ाम से जमीन पर, आपसे अलग होकर। अभी आप देख पा रहे हो बाहर की चीजें साफ साफ, आपको दिख रहा है कि बेहोशी में जो कुछ चल रहा था वो मेरे भीतर कभी नही चला। जो भी था सब बाहर की बात थी, मैं तो बस भूल गया था खुद को बेहोशी में, ध्यान ना रहा था कि सब जो चल रहा था कोई स्वप्न था। खैर जो भी था सही था, जैसी प्रभु की इच्छा, जब मन किया ध्यान में डुबो दिया जब मन कि
रातों में भी करता उत्पात,
समुंदर कहां कब सोता है।
जब धरती की कोख़ उबलती है,
तो आसमान भी तो रोता है।
ये बड़े पेड़ जब कटते हैं,
दर्द उन्हें भी होता है।
ज़ुल्म सह लेते हैं मूक पशु,
कलेजा तो उनका भी होता है।
उजाड़ दिए जाते हैं घर पंछियों के,
दुख उनका भी तो होता है।
इन सब का जिम्मेदार जगत में,
इंसान ख़ुद ही तो होता है।
दुख दर्द भरे हों अगर मन में,
आदमी ख़ुद को ही खोता है।
देता है कयामत को अंज़ाम रोज़,
फ़िर भी कभी ख़ुश नहीं होता है।
~ #ShubhankarThinks
समुंदर कहां कब सोता है।
जब धरती की कोख़ उबलती है,
तो आसमान भी तो रोता है।
ये बड़े पेड़ जब कटते हैं,
दर्द उन्हें भी होता है।
ज़ुल्म सह लेते हैं मूक पशु,
कलेजा तो उनका भी होता है।
उजाड़ दिए जाते हैं घर पंछियों के,
दुख उनका भी तो होता है।
इन सब का जिम्मेदार जगत में,
इंसान ख़ुद ही तो होता है।
दुख दर्द भरे हों अगर मन में,
आदमी ख़ुद को ही खोता है।
देता है कयामत को अंज़ाम रोज़,
फ़िर भी कभी ख़ुश नहीं होता है।
~ #ShubhankarThinks
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