कभी कभी घिर जाते हैं हम गहरे किसी दलदल में, फँस जाते हैं जिंदगी के चक्के किसी कीचड़ में, तब जिंदगी चलती भी है तो रेंगकर, लगता है सब रुका हुआ सा। बेहोशी में लगता है सब सही है, पता नहीं रहता अपने होने का भी, तब बेहोशी हमें पता नहीं लगने देती कि होश पूरा जा चुका है। ठीक भी है बेहोशी ना हो तो पता कैसे लगाइएगा की होश में रहना क्या होता है, विपरीत से ही दूसरे विपरीत को प्रकाश मिलता है अन्यथा महत्व क्या रह जायेगा किसी भी बात का फिर तो सही भी ना रहेगा गलत भी ना रहेगा सब शून्य रहेगा। बेहोशी भी रूकती नहीं हमेशा के लिए कभी आते हैं ऐसे क्षण भी जब एक दम से यूटूर्न मार जाती है आपकी नियति, आपको लगता है जैसे आँधी आयी कोई और उसने सब साफ कर दिया, बेहोशी गिर गयी धड़ाम से जमीन पर, आपसे अलग होकर। अभी आप देख पा रहे हो बाहर की चीजें साफ साफ, आपको दिख रहा है कि बेहोशी में जो कुछ चल रहा था वो मेरे भीतर कभी नही चला। जो भी था सब बाहर की बात थी, मैं तो बस भूल गया था खुद को बेहोशी में, ध्यान ना रहा था कि सब जो चल रहा था कोई स्वप्न था। खैर जो भी था सही था, जैसी प्रभु की इच्छा, जब मन किया ध्यान में डुबो दिया जब मन कि
प्रश्न यह की कौन हूं मैं?
सब घट रहा है फिर भी मौन हूं मैं!
श्वास श्वास घट रहा हूं, सूक्ष्म रूप रख रहा हूं।
आधार मेरा सत्य है, असत्य में भी बस रहा हूं।
यह देह मेरी मर्त्य है, अनन्त यह चेतनतत्तव है!
मैं ही ब्रह्म हूं, मैं ही बिंदु हूं,
तम भी मैं, उदगम भी मैं,
विच्छेद मुझ से, संगम भी मैं।
मैं सृष्टि हूं, नक्षत्र हूं,
मृत्यु भी मैं, मैं ही जीवत्व हूं,
आकाश में, पाताल में, भूलोक में, जलताल में,
उपस्थिति मेरी यत्र तत्र है, मैं सर्वत्र हूं।
प्रौढ़ मैं, यौवन भी मैं!
मैं बाल हूं, मैं वृद्ध हूं|
मैं योग हूं, मैं ही काम में,
मैं प्रेम हूं, मैं ही क्रुद्ध हूं,
भ्रमित ना हो किसी नाम में,
हूं अधीर मैं, मैं ही संतुष्ट हूं।
निर्मल भी मैं, मैं ही अशुद्ध हूं,
मैं शीत हूं, मैं ही रुद्र हूं।
मैं शून्य हूं, मैं क्षुद्र हूं,
मैं मौन हूं, मैं गौण हूं,
प्रश्न यह की कौन हूं मैं?
- #ShubhankarThinks
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