कभी कभी घिर जाते हैं हम गहरे किसी दलदल में, फँस जाते हैं जिंदगी के चक्के किसी कीचड़ में, तब जिंदगी चलती भी है तो रेंगकर, लगता है सब रुका हुआ सा। बेहोशी में लगता है सब सही है, पता नहीं रहता अपने होने का भी, तब बेहोशी हमें पता नहीं लगने देती कि होश पूरा जा चुका है। ठीक भी है बेहोशी ना हो तो पता कैसे लगाइएगा की होश में रहना क्या होता है, विपरीत से ही दूसरे विपरीत को प्रकाश मिलता है अन्यथा महत्व क्या रह जायेगा किसी भी बात का फिर तो सही भी ना रहेगा गलत भी ना रहेगा सब शून्य रहेगा। बेहोशी भी रूकती नहीं हमेशा के लिए कभी आते हैं ऐसे क्षण भी जब एक दम से यूटूर्न मार जाती है आपकी नियति, आपको लगता है जैसे आँधी आयी कोई और उसने सब साफ कर दिया, बेहोशी गिर गयी धड़ाम से जमीन पर, आपसे अलग होकर। अभी आप देख पा रहे हो बाहर की चीजें साफ साफ, आपको दिख रहा है कि बेहोशी में जो कुछ चल रहा था वो मेरे भीतर कभी नही चला। जो भी था सब बाहर की बात थी, मैं तो बस भूल गया था खुद को बेहोशी में, ध्यान ना रहा था कि सब जो चल रहा था कोई स्वप्न था। खैर जो भी था सही था, जैसी प्रभु की इच्छा, जब मन किया ध्यान में डुबो दिया जब मन कि
कोशिशों की नीलामी सरेआम हो गयी है,
ज़िन्दगी अब बहुत ही आम हो गयी है!
बुनने उधेड़ने को कुछ बचा नहीं है,
दिन की मंज़िल अब "आराम" हो गयी है!
दिन ढलने लगा है, सूरज छिप सा रहा है,
कुछ पल तुम ठहर जाओ कब तक बढ़ोगे,
जिंदगी है संग्राम आखिर कब तक लड़ोगे!
पंछियों ने भी थककर हथियार डाल दिये हैं,
आज के सारे अरमान अब कल तक टाल दिए हैं।
कल किसने देखा? कौन आयेगा या कौन जायेगा,
आज सोचा हुआ "कल" आयेगा या नहीं आयेगा।
मगर वक़्त का पहिया तो घूमता ही जायेगा,
आने वाले कल भी एक नया "आज" आयेगा|
इस चक्कर में वक़्त की सुई बदनाम हो गयी है,
अब थम जा कुछ देर, शाम हो गयी है|
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