कभी कभी घिर जाते हैं हम गहरे किसी दलदल में, फँस जाते हैं जिंदगी के चक्के किसी कीचड़ में, तब जिंदगी चलती भी है तो रेंगकर, लगता है सब रुका हुआ सा। बेहोशी में लगता है सब सही है, पता नहीं रहता अपने होने का भी, तब बेहोशी हमें पता नहीं लगने देती कि होश पूरा जा चुका है। ठीक भी है बेहोशी ना हो तो पता कैसे लगाइएगा की होश में रहना क्या होता है, विपरीत से ही दूसरे विपरीत को प्रकाश मिलता है अन्यथा महत्व क्या रह जायेगा किसी भी बात का फिर तो सही भी ना रहेगा गलत भी ना रहेगा सब शून्य रहेगा। बेहोशी भी रूकती नहीं हमेशा के लिए कभी आते हैं ऐसे क्षण भी जब एक दम से यूटूर्न मार जाती है आपकी नियति, आपको लगता है जैसे आँधी आयी कोई और उसने सब साफ कर दिया, बेहोशी गिर गयी धड़ाम से जमीन पर, आपसे अलग होकर। अभी आप देख पा रहे हो बाहर की चीजें साफ साफ, आपको दिख रहा है कि बेहोशी में जो कुछ चल रहा था वो मेरे भीतर कभी नही चला। जो भी था सब बाहर की बात थी, मैं तो बस भूल गया था खुद को बेहोशी में, ध्यान ना रहा था कि सब जो चल रहा था कोई स्वप्न था। खैर जो भी था सही था, जैसी प्रभु की इच्छा, जब मन किया ध्यान में डुबो दिया जब मन कि
वक़्त चल रहा था, लोग भी ठहरे नहीं थे,
खुली रहती थीं किबाड़, तब उतने पहरे नहीं थे।
खुला आसमान, ये चाँद और सितारे
बग़ीचे में मचलते ये रंगीन फ़व्वारे।
दरख़्तों से निकली हवा की फ़ुहारें,
कहीं बच्चों के हाथों में रंगीन गुब्बारे।
पंछियों के गुटों का घर वापस आना,
माँ को देखकर बच्चों का यूँ खिल जाना।
काम से थके हारे लोगों घर वापस आना,
फिर चौपालों पर बैठकर ठहठहा लगाना।
गली नुक्कड़ पर बच्चों का हुजूम लग जाना,
फ़िर खेल-करतब करते-करते उनका थक जाना।
घर में घुसते ही भूख का ज़ोरों से दौड़ जाना,
फिर चूल्हे की रोटी और माँ के हाथ का खाना।
शाम अब भी वही है, लोग अब भी वहीं हैं,
अब बातें नई हैं और बदल गया है जमाना।
मगर बात जब भी सुकून की होती है,
तब- तब याद आता है वो गुजरा जमाना!
याद आता है वो गुजरा जमाना।
#ShubhankarThinks
Bhut khubsurti se yaad dilaya apne wo gujra jamana
ReplyDeleteBhut khubsurti se yaad dilaya apne wo gujra jamana
ReplyDeleteBhut khubsurti se yaad dilaya apne wo gujra jamana
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