कुछ बन जाने में एक चुनाव है, जिसके बाद इंसान कुछ और नहीं बन पाता, मगर कुछ ना बनने में, सब कुछ बन जाने की संभावना होती है। #ShubhankarThinks
वक़्त चल रहा था, लोग भी ठहरे नहीं थे, खुली रहती थीं किबाड़, तब उतने पहरे नहीं थे। खुला आसमान, ये चाँद और सितारे बग़ीचे में मचलते ये रंगीन फ़व्वारे। दरख़्तों से निकली हवा की फ़ुहारें, कहीं बच्चों के हाथों में रंगीन गुब्बारे। पंछियों के गुटों का घर वापस आना, माँ को देखकर बच्चों का यूँ खिल जाना। काम से थके हारे लोगों घर वापस आना, फिर चौपालों पर बैठकर ठहठहा लगाना। गली नुक्कड़ पर बच्चों का हुजूम लग जाना, फ़िर खेल-करतब करते-करते उनका थक जाना। घर में घुसते ही भूख का ज़ोरों से दौड़ जाना, फिर चूल्हे की रोटी और माँ के हाथ का खाना। शाम अब भी वही है, लोग अब भी वहीं हैं, अब बातें नई हैं और बदल गया है जमाना। मगर बात जब भी सुकून की होती है, तब- तब याद आता है वो गुजरा जमाना! याद आता है वो गुजरा जमाना। #ShubhankarThinks