प्रेम को जितना भी जाना गया वो बहुत कम जाना गया, प्रेम को किया कम लोगों ने और लिखा ज्यादा गया। ख़ुशी मिली तो लिख दिया बढ़ा चढ़ाकर, मिले ग़म तो बना दिया बीमारी बनाकर। किसी ने बेमन से ही लिख दी दो चार पंक्ति शौकिया तौर पर, कोई शुरुआत पर ही लिखता रहा डुबा डुबा कर। कुछ लगे लोग प्रेम करने ताकि लिखना सीख जाएं, फ़िर वो लिखने में इतने व्यस्त कि भूल गए उसे यथार्थ में उतारना! हैं बहुत कम लोग जो ना बोलते हैं, ना कुछ लिखते हैं उनके पास समय ही नहीं लिखने के लिए, वो डूबे हैं प्रेम में पूरे के पूरे। वो जानते हैं की यह लिखने जितना सरल विषय है ही नहीं इसलिए वो बिना समय व्यर्थ किए कर रहे हैं उस हर पल जीने की। उन्हें दिखाने बताने, समझाने जैसी औपचारिकता की आवश्यकता नहीं दिखती,वो ख़ुद पूरे के पूरे प्रमाण हैं, उनका एक एक अंश इतना पुलकित होगा कि संपर्क में आया प्रत्येक व्यक्ति उस उत्सव में शामिल हुए बिना नहीं रह पायेगा। वो चलते फिरते बस बांट रहे होंगे, रस ही रस। ~ #ShubhankarThinks
वो कहते हैं ना, खुद को कितना भी रंगों में रंग लो,
मगर एक दिन पानी पड़ते ही असली रंग दिख ही जाता है|
कुछ दिनों से बयार सी चल पड़ी थी देश में शायर लेखकों की ,
फिर एक दिन आँधी आयी और सबके पत्ते खुल गये|
कुछ दिनों से बयार सी चल पड़ी है, कविता ,कहानी लिखने और सुनाने की!
इन सबके बीच बढ़ा है, लेखकों का धंधा!
कोई नेम के चक्कर में फेमिनिज्म को बाहों में भर लिया,
किसी ने नेम के चक्कर अपनी लेखनी को सेक्सिसम में कैद किया!
धीरे धीरे गिरगिट को देखकर गिरगिट ने रंग बदला,
लेखनी भले ही सामाजिक मुद्दे उठा रही थी, मगर खुद की असलियत को किसी ने ना बदला|
तब लग रहा था जैसे अब हर कोने से निकलेगी आवाज,
अब होगा किसी बदलाव का आगाज़|
सबने अपने सुर को जोरों से उठाया,
जिसको मौका मिला सभी ने भुनाया!
फिर निकले वही ढाक के तीन पात,
जिनकी लेखनी कर रही थी,
महिला सुरक्षा, बाल विकास की बात,
वो खुद कर रहे थे इसके विपरीत सभी काज|
फिर चली आँधी और उड़ गए सबके चेहरों से नकाब,
असली चेहरे में खुद अपराधी निकले लेखक जनाब|
अब मचा है उपद्रव और उठी हैं कुछ आवाज,
शायद एक बदलाव का युग तो हो गया समाप्त आज,
अब फिर से लगी हैं सबको किसी और बदलाव की आस|
#ShubhankarThinks
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दिल से लिखनेवाले कम हैं अपने शब्दों के साथ रहनेवाले कम है।
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