बंद आँखों से "मैं" का जब पर्दा हटाया, कहने और करने में बड़ा फ़र्क पाया। सब समझने के वहम में जीता रहा "मैं", सच में समझ तो कुछ भी नहीं आया। रहा व्यस्त इतना सच्चाई की लाश ढोने में, कि जिंदा झूठ अपना समझ नहीं आया। कारण ढूँढता रहा हर सुख दुख में, अकारण मुझे कुछ नज़र नहीं आया। ढूँढता रहा सब जगह कुछ पाने की ललक से, जो मिला ही हुआ है वो ध्यान में ना आया। फँसता गया सब झंझटों में आसानी से, सरलता को कभी अपनाना नहीं चाहा। झूठ ही झूठ में उलझा हुआ पाया, आंखों से जब जब पर्दा हटाया। ~ #ShubhankarThinks
वो कहते हैं ना, खुद को कितना भी रंगों में रंग लो,
मगर एक दिन पानी पड़ते ही असली रंग दिख ही जाता है|
कुछ दिनों से बयार सी चल पड़ी थी देश में शायर लेखकों की ,
फिर एक दिन आँधी आयी और सबके पत्ते खुल गये|
कुछ दिनों से बयार सी चल पड़ी है, कविता ,कहानी लिखने और सुनाने की!
इन सबके बीच बढ़ा है, लेखकों का धंधा!
कोई नेम के चक्कर में फेमिनिज्म को बाहों में भर लिया,
किसी ने नेम के चक्कर अपनी लेखनी को सेक्सिसम में कैद किया!
धीरे धीरे गिरगिट को देखकर गिरगिट ने रंग बदला,
लेखनी भले ही सामाजिक मुद्दे उठा रही थी, मगर खुद की असलियत को किसी ने ना बदला|
तब लग रहा था जैसे अब हर कोने से निकलेगी आवाज,
अब होगा किसी बदलाव का आगाज़|
सबने अपने सुर को जोरों से उठाया,
जिसको मौका मिला सभी ने भुनाया!
फिर निकले वही ढाक के तीन पात,
जिनकी लेखनी कर रही थी,
महिला सुरक्षा, बाल विकास की बात,
वो खुद कर रहे थे इसके विपरीत सभी काज|
फिर चली आँधी और उड़ गए सबके चेहरों से नकाब,
असली चेहरे में खुद अपराधी निकले लेखक जनाब|
अब मचा है उपद्रव और उठी हैं कुछ आवाज,
शायद एक बदलाव का युग तो हो गया समाप्त आज,
अब फिर से लगी हैं सबको किसी और बदलाव की आस|
#ShubhankarThinks
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दिल से लिखनेवाले कम हैं अपने शब्दों के साथ रहनेवाले कम है।
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