बंद आँखों से "मैं" का जब पर्दा हटाया, कहने और करने में बड़ा फ़र्क पाया। सब समझने के वहम में जीता रहा "मैं", सच में समझ तो कुछ भी नहीं आया। रहा व्यस्त इतना सच्चाई की लाश ढोने में, कि जिंदा झूठ अपना समझ नहीं आया। कारण ढूँढता रहा हर सुख दुख में, अकारण मुझे कुछ नज़र नहीं आया। ढूँढता रहा सब जगह कुछ पाने की ललक से, जो मिला ही हुआ है वो ध्यान में ना आया। फँसता गया सब झंझटों में आसानी से, सरलता को कभी अपनाना नहीं चाहा। झूठ ही झूठ में उलझा हुआ पाया, आंखों से जब जब पर्दा हटाया। ~ #ShubhankarThinks
यह कविता सत्य घटना पर पूर्णतयः आधारित है, जिसमें मैंने ऐसे गंभीर मुद्दे के साथ न्याय करने का एक छोटा सा प्रयास किया है, इसीलिए आपसे निवेदन है की जरूर पढ़ें | प्यारे पापा , मैं आपकी लाड़ली बेटी, जिसकी फ़िज़ूल की बातें आप बड़े चाव से सुना करते थे, मगर अब तो काम की बातें सुनने के लिए भी आपके कान इजाजत नहीं देते शायद! खैर ,मैं यह पत्र तंज कसने के लिए नहीं लिख रही, किसी को नीचा दिखाने के लिए नहींं लिख रही| आपको याद होगा ना जब आपने , मेरा रिश्ता तय कर दिया था मेरा किसी के साथ, उस उम्र में जब स्कूल का रास्ता तय कर पाना भी मेरे लिए मुश्किल था| 10 साल की थी तब मैं और स्कूल पूरे 5 किलोमीटर दूर था| मैंने तब भी कुछ कहा नहीं था, क्योंकि मुझे भी नहीं पता था यह सब क्या है? खैर उस बात को अब 7-8 साल हो चुके| समय बदला और समय के साथ मुझे एक बात समझ में आई है, वो लड़का मेरे लिए सही नहीं है, यह रट मैंने बहुत दिनों से लगाई है| शायद इसी वजह से आप अब सुनते नहीं मुझे, मगर आज यह बात तो मैं आपको सुनाकर रहूँगी| वो आपकी मौजूदगी तो कभी गैरमौजूदगी में घर आ जाता है, मम्मी और आप दोनों को मीठी बातों से रिझाता है! मग