प्रेम को जितना भी जाना गया वो बहुत कम जाना गया, प्रेम को किया कम लोगों ने और लिखा ज्यादा गया। ख़ुशी मिली तो लिख दिया बढ़ा चढ़ाकर, मिले ग़म तो बना दिया बीमारी बनाकर। किसी ने बेमन से ही लिख दी दो चार पंक्ति शौकिया तौर पर, कोई शुरुआत पर ही लिखता रहा डुबा डुबा कर। कुछ लगे लोग प्रेम करने ताकि लिखना सीख जाएं, फ़िर वो लिखने में इतने व्यस्त कि भूल गए उसे यथार्थ में उतारना! हैं बहुत कम लोग जो ना बोलते हैं, ना कुछ लिखते हैं उनके पास समय ही नहीं लिखने के लिए, वो डूबे हैं प्रेम में पूरे के पूरे। वो जानते हैं की यह लिखने जितना सरल विषय है ही नहीं इसलिए वो बिना समय व्यर्थ किए कर रहे हैं उस हर पल जीने की। उन्हें दिखाने बताने, समझाने जैसी औपचारिकता की आवश्यकता नहीं दिखती,वो ख़ुद पूरे के पूरे प्रमाण हैं, उनका एक एक अंश इतना पुलकित होगा कि संपर्क में आया प्रत्येक व्यक्ति उस उत्सव में शामिल हुए बिना नहीं रह पायेगा। वो चलते फिरते बस बांट रहे होंगे, रस ही रस। ~ #ShubhankarThinks
मैं लाचार सा एक आशिक़ हूँ,
हालत मेरी सरकार के भक्तों जैसी है !
अगर याद करूँ वो शुरुआती दिन ,
जैसे किसी चुनावी तैयारी में गुजर रहे थे, रात और दिन |
तब तू रोज मुझसे मिलने आती थी ,
कसमें वादे रोज़ नए तू खाती थी !
अभी भी रखे हुए हैं ,
तेरे भेजे हुए सब प्रेमपत्र !
जैसे किसी राजनीतिक पार्टी का हो लुभावना घोषणापत्र|
मैं भी भविष्य के सपने बुनता था रात-दिन ,
मानो मेरी ज़िन्दगी में आने वाले हों अच्छे दिन!
तूने बोला था,
हो जाओ तैयार अब दिन-रात सब अच्छे हो जायेंगे!
चिंता की कोई बात नहीं प्रेम-रुपी मन्दिर हम यहीं बनाएँगे|
तू पहले ख़ूब बतलाती थी,
मेरी बातों पर खिलखिलाती थी!
फिर लगने लगीं मेरी सब बातें गंदी,
तू फिर ऐसे चुप हो गयी,
जैसे १०००-५०० के नोटों पर लगी हो नोटबंदी|
हिम्मत तब भी ना मैंने तोड़ी थी,
इस रिश्ते को मैं जोड़ने में लगा था!
ठीक वैसे जैसे एक आम आदमी काम धन्धा सब छोड़कर,
बैंक की लाइन में खड़ा था |
तुमने मुझसे बात करना तक कम कर दिया था,
तुम्हें शायद दिख रहा था ,मुझमें कोई ५०० का नोट!
तिरस्कार किया मेरा ऐसा जैसे मेरे अन्दर आ गयी कुछ खोट|
तुम्हारे भाव क्या पहले से कम बढ़ रहे थे?
नोटबंदी को देखकर ये और भी चढ़ रहे थे,
मैं अभागा ४G का डेटा निकला!
जिसके भाव इंसानियत से भी ज़्यादा घट रहे थे|
ख़ैर तुम्हारी नफ़रत की आँधी उतर चुकी थी,
बात पहले जैसी नहीं कुछ बची थी!
फिर तुमने भेजी थी वो आखिरी चिट्ठी,
जिसे पढ़ने के बाद बन गयी मेरी गम्भीर स्थिति!
वो बिल्कुल ऐसी थी,
जैसे सेलिंग पर्चेज़िंग पर लगा दी हो जीएसटी|
हमारी प्रेम कहानी कहाँ कुछ बची है,
अब तू मुझसे हो चुकी है बेख़बर!
मुलाक़ातें हमारी अब बहुत घट चुकी हैं,
जैसे घटे हैं देश में रोज़गार के अवसर|
मेरी ज़िंदगी से तेरे बनाये प्रेम -रूपी बादल एक एक करके घटे हैं,
जैसे किसानों की फसल के दाम मण्डियों में घटे हैं|
मैं अब जोह रहा हूँ चुनावी दिनों की बाट,
कम से कम इस मौसम ना सही,
अगले मौसम में फिर से आयेगी तुम्हें मेरी अहमियत की याद|
धन्यवाद!

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https://www.youtube.com/watch?v=XaedoiTohjs
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Shubhankar Thinks
हालत मेरी सरकार के भक्तों जैसी है !
अगर याद करूँ वो शुरुआती दिन ,
जैसे किसी चुनावी तैयारी में गुजर रहे थे, रात और दिन |
तब तू रोज मुझसे मिलने आती थी ,
कसमें वादे रोज़ नए तू खाती थी !
अभी भी रखे हुए हैं ,
तेरे भेजे हुए सब प्रेमपत्र !
जैसे किसी राजनीतिक पार्टी का हो लुभावना घोषणापत्र|
मैं भी भविष्य के सपने बुनता था रात-दिन ,
मानो मेरी ज़िन्दगी में आने वाले हों अच्छे दिन!
तूने बोला था,
हो जाओ तैयार अब दिन-रात सब अच्छे हो जायेंगे!
चिंता की कोई बात नहीं प्रेम-रुपी मन्दिर हम यहीं बनाएँगे|
तू पहले ख़ूब बतलाती थी,
मेरी बातों पर खिलखिलाती थी!
फिर लगने लगीं मेरी सब बातें गंदी,
तू फिर ऐसे चुप हो गयी,
जैसे १०००-५०० के नोटों पर लगी हो नोटबंदी|
हिम्मत तब भी ना मैंने तोड़ी थी,
इस रिश्ते को मैं जोड़ने में लगा था!
ठीक वैसे जैसे एक आम आदमी काम धन्धा सब छोड़कर,
बैंक की लाइन में खड़ा था |
तुमने मुझसे बात करना तक कम कर दिया था,
तुम्हें शायद दिख रहा था ,मुझमें कोई ५०० का नोट!
तिरस्कार किया मेरा ऐसा जैसे मेरे अन्दर आ गयी कुछ खोट|
तुम्हारे भाव क्या पहले से कम बढ़ रहे थे?
नोटबंदी को देखकर ये और भी चढ़ रहे थे,
मैं अभागा ४G का डेटा निकला!
जिसके भाव इंसानियत से भी ज़्यादा घट रहे थे|
ख़ैर तुम्हारी नफ़रत की आँधी उतर चुकी थी,
बात पहले जैसी नहीं कुछ बची थी!
फिर तुमने भेजी थी वो आखिरी चिट्ठी,
जिसे पढ़ने के बाद बन गयी मेरी गम्भीर स्थिति!
वो बिल्कुल ऐसी थी,
जैसे सेलिंग पर्चेज़िंग पर लगा दी हो जीएसटी|
हमारी प्रेम कहानी कहाँ कुछ बची है,
अब तू मुझसे हो चुकी है बेख़बर!
मुलाक़ातें हमारी अब बहुत घट चुकी हैं,
जैसे घटे हैं देश में रोज़गार के अवसर|
मेरी ज़िंदगी से तेरे बनाये प्रेम -रूपी बादल एक एक करके घटे हैं,
जैसे किसानों की फसल के दाम मण्डियों में घटे हैं|
मैं अब जोह रहा हूँ चुनावी दिनों की बाट,
कम से कम इस मौसम ना सही,
अगले मौसम में फिर से आयेगी तुम्हें मेरी अहमियत की याद|
धन्यवाद!
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Shubhankar Thinks
वाह वाह।जबर्दस्त कटाक्ष!!
ReplyDeleteवह बेवफा ही क्या जो साथ निभा दे,
वह नेता ही क्या जो वादा निभा दे,
आईये इंतेज़ार
और
यादों के समन्दर में गोता लगाते हैं,
उनके दिखाए ख्वाबों की ज्वाला में,
खुद को जलाते हैं,
bhut shandar sir apne gazzab panktiyon k sath pratikriya di !
ReplyDeletebhut dhanyvaad apka sir
Nice And Very useful info,
ReplyDeleteThis article important and really good the for me is.Keep it up and thanks to the writer.Amazing write-up,Great article. Thanks!