प्रेम को जितना भी जाना गया वो बहुत कम जाना गया, प्रेम को किया कम लोगों ने और लिखा ज्यादा गया। ख़ुशी मिली तो लिख दिया बढ़ा चढ़ाकर, मिले ग़म तो बना दिया बीमारी बनाकर। किसी ने बेमन से ही लिख दी दो चार पंक्ति शौकिया तौर पर, कोई शुरुआत पर ही लिखता रहा डुबा डुबा कर। कुछ लगे लोग प्रेम करने ताकि लिखना सीख जाएं, फ़िर वो लिखने में इतने व्यस्त कि भूल गए उसे यथार्थ में उतारना! हैं बहुत कम लोग जो ना बोलते हैं, ना कुछ लिखते हैं उनके पास समय ही नहीं लिखने के लिए, वो डूबे हैं प्रेम में पूरे के पूरे। वो जानते हैं की यह लिखने जितना सरल विषय है ही नहीं इसलिए वो बिना समय व्यर्थ किए कर रहे हैं उस हर पल जीने की। उन्हें दिखाने बताने, समझाने जैसी औपचारिकता की आवश्यकता नहीं दिखती,वो ख़ुद पूरे के पूरे प्रमाण हैं, उनका एक एक अंश इतना पुलकित होगा कि संपर्क में आया प्रत्येक व्यक्ति उस उत्सव में शामिल हुए बिना नहीं रह पायेगा। वो चलते फिरते बस बांट रहे होंगे, रस ही रस। ~ #ShubhankarThinks
मेरे घर के आँगन में एक बड़ा सा पेड़ है बरगद का,
जानवरों को धूप से बचाता है , हम सबको ठंडी छाँव देता है !
इन सबके साथ साथ वो आशियाना है उस नए प्राणी का|
जो अभी बसंत गुजर जाने के बाद यहाँ नई आकर बसी है,
वो रहती है, उस बड़े से तने में बने ख़ुफ़िया से खोखले में,
जो पिछले २-३ महीने से शैतान गिलहरियों की कारिस्तानी की वजह से बना था !
ये कोई एक दिन का कब्जा नहीं है,
ना ही उसने किसी से बना बनाया खरीदा!
उसने बनाया है इसे छोटे -छोटे तिनके लाकर,
कुछ घास फूंस अपने पँजों में फंसाकर!
कुछ खाली पड़े खेत में उगी घास उठाकर,
तो कभी भूख प्यास सब कुछ भुलाकर|
ये तो उसके संघर्ष के दिनों की कहानी है,
खैर अब एक नहीं वो तीन प्राणी हैं!
अपने आने वाले बच्चों के लिए ही तो इतना आयोजन था,
वरना उस अकेली के लिए , तो स्वछंद गगन था|
कभी दाना बटोर कर मीलों दूर से लाती,
तो कभी चहचाहट करना वो उनको सिखाती!
सबसे पहले बच्चों को खिलाती,
जाने कितनी बार खुद बिना खाये सो जाती|
ऐसा करती भी क्यों नहीं?
आख़िर घरौंदा उसका अब भरा हुआ था ,
भविष्य और भी सुखद होगा अब!
ये विचार उसके मन में कहीं धरा हुआ था|
मगर होनी को कौन टाल सकता है,
वर्तमान को हाथों में कौन सम्हाल सकता है!
बच्चों को खुद के बल पर जीना सिखाती थी,
कभी अन्य पक्षियों से उन्हें बचाती थी!
कभी पेड़ की चोटी पर बैठकर उन्हें नए सबक सिखाती थी,
हर रोज़ शाम को उन्हें उड़ना सिखाती थी|
अभ्यास का परिणाम दिखने लगा अब,
पंखों का दायरा बढ़ने लगा अब!
ऊँची उड़ाने भरने लगा अब,
आसमान की ऊंचाई का फासला घटने लगा अब|
कभी बच्चे खेल खेल में पूरा दिन गायब हो जाते,
अचानक से किसी दिन वापस आ जाते!
फिर अपनी सारी उड़ानों के किस्से,
बड़े चाव से अपनी माँ को सुनाते|
वो उनकी कामयाबी देखकर फूले ना समाती,
कभी पीठ थपथपाती उनकी तो कभी मन ही मन हर्षाती!
मगर अब उड़ानों का फासला कुछ ज्यादा बढ़ गया है,
पिछली बार जब उन्होंने उड़ान भरी थी उस बात को एक अरसा हो गया है|
वो चिड़िया अभी भी वहीं अकेली रहती है,
रोज शाम को दाना लाकर बच्चों की बाट देखती है!
कभी पूछती है वो अपने पड़ोसियों से की ,उन्होंने उसके बच्चों को देखा?
तो कभी ऊंची ऊंची उड़ाने भरकर ढूँढ़ती है जहां तहां !
मगर उम्मीदों के बादल कोई ख़बर नहीं लाते,
उसके बच्चे अब कहीं नज़र नहीं आते|
मेरे घर के आँगन में खड़े बरगद के पेड़ पर,
उस खोखले स्थान पर एक घरौंदा बसा था ,
जो अब घोंसला बनकर रह गया |
style="display:block; text-align:center;"
data-ad-layout="in-article"
data-ad-format="fluid"
data-ad-client="ca-pub-5231674881305671"
data-ad-slot="8314948495">
All rights Reserved Shubhankar Thinks
Comments
Post a Comment
Please express your views Here!