कभी कभी घिर जाते हैं हम गहरे किसी दलदल में, फँस जाते हैं जिंदगी के चक्के किसी कीचड़ में, तब जिंदगी चलती भी है तो रेंगकर, लगता है सब रुका हुआ सा। बेहोशी में लगता है सब सही है, पता नहीं रहता अपने होने का भी, तब बेहोशी हमें पता नहीं लगने देती कि होश पूरा जा चुका है। ठीक भी है बेहोशी ना हो तो पता कैसे लगाइएगा की होश में रहना क्या होता है, विपरीत से ही दूसरे विपरीत को प्रकाश मिलता है अन्यथा महत्व क्या रह जायेगा किसी भी बात का फिर तो सही भी ना रहेगा गलत भी ना रहेगा सब शून्य रहेगा। बेहोशी भी रूकती नहीं हमेशा के लिए कभी आते हैं ऐसे क्षण भी जब एक दम से यूटूर्न मार जाती है आपकी नियति, आपको लगता है जैसे आँधी आयी कोई और उसने सब साफ कर दिया, बेहोशी गिर गयी धड़ाम से जमीन पर, आपसे अलग होकर। अभी आप देख पा रहे हो बाहर की चीजें साफ साफ, आपको दिख रहा है कि बेहोशी में जो कुछ चल रहा था वो मेरे भीतर कभी नही चला। जो भी था सब बाहर की बात थी, मैं तो बस भूल गया था खुद को बेहोशी में, ध्यान ना रहा था कि सब जो चल रहा था कोई स्वप्न था। खैर जो भी था सही था, जैसी प्रभु की इच्छा, जब मन किया ध्यान में डुबो दिया जब मन कि
मेरे घर के आँगन में एक बड़ा सा पेड़ है बरगद का,
जानवरों को धूप से बचाता है , हम सबको ठंडी छाँव देता है !
इन सबके साथ साथ वो आशियाना है उस नए प्राणी का|
जो अभी बसंत गुजर जाने के बाद यहाँ नई आकर बसी है,
वो रहती है, उस बड़े से तने में बने ख़ुफ़िया से खोखले में,
जो पिछले २-३ महीने से शैतान गिलहरियों की कारिस्तानी की वजह से बना था !
ये कोई एक दिन का कब्जा नहीं है,
ना ही उसने किसी से बना बनाया खरीदा!
उसने बनाया है इसे छोटे -छोटे तिनके लाकर,
कुछ घास फूंस अपने पँजों में फंसाकर!
कुछ खाली पड़े खेत में उगी घास उठाकर,
तो कभी भूख प्यास सब कुछ भुलाकर|
ये तो उसके संघर्ष के दिनों की कहानी है,
खैर अब एक नहीं वो तीन प्राणी हैं!
अपने आने वाले बच्चों के लिए ही तो इतना आयोजन था,
वरना उस अकेली के लिए , तो स्वछंद गगन था|
कभी दाना बटोर कर मीलों दूर से लाती,
तो कभी चहचाहट करना वो उनको सिखाती!
सबसे पहले बच्चों को खिलाती,
जाने कितनी बार खुद बिना खाये सो जाती|
ऐसा करती भी क्यों नहीं?
आख़िर घरौंदा उसका अब भरा हुआ था ,
भविष्य और भी सुखद होगा अब!
ये विचार उसके मन में कहीं धरा हुआ था|
मगर होनी को कौन टाल सकता है,
वर्तमान को हाथों में कौन सम्हाल सकता है!
बच्चों को खुद के बल पर जीना सिखाती थी,
कभी अन्य पक्षियों से उन्हें बचाती थी!
कभी पेड़ की चोटी पर बैठकर उन्हें नए सबक सिखाती थी,
हर रोज़ शाम को उन्हें उड़ना सिखाती थी|
अभ्यास का परिणाम दिखने लगा अब,
पंखों का दायरा बढ़ने लगा अब!
ऊँची उड़ाने भरने लगा अब,
आसमान की ऊंचाई का फासला घटने लगा अब|
कभी बच्चे खेल खेल में पूरा दिन गायब हो जाते,
अचानक से किसी दिन वापस आ जाते!
फिर अपनी सारी उड़ानों के किस्से,
बड़े चाव से अपनी माँ को सुनाते|
वो उनकी कामयाबी देखकर फूले ना समाती,
कभी पीठ थपथपाती उनकी तो कभी मन ही मन हर्षाती!
मगर अब उड़ानों का फासला कुछ ज्यादा बढ़ गया है,
पिछली बार जब उन्होंने उड़ान भरी थी उस बात को एक अरसा हो गया है|
वो चिड़िया अभी भी वहीं अकेली रहती है,
रोज शाम को दाना लाकर बच्चों की बाट देखती है!
कभी पूछती है वो अपने पड़ोसियों से की ,उन्होंने उसके बच्चों को देखा?
तो कभी ऊंची ऊंची उड़ाने भरकर ढूँढ़ती है जहां तहां !
मगर उम्मीदों के बादल कोई ख़बर नहीं लाते,
उसके बच्चे अब कहीं नज़र नहीं आते|
मेरे घर के आँगन में खड़े बरगद के पेड़ पर,
उस खोखले स्थान पर एक घरौंदा बसा था ,
जो अब घोंसला बनकर रह गया |
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