कभी कभी घिर जाते हैं हम गहरे किसी दलदल में, फँस जाते हैं जिंदगी के चक्के किसी कीचड़ में, तब जिंदगी चलती भी है तो रेंगकर, लगता है सब रुका हुआ सा। बेहोशी में लगता है सब सही है, पता नहीं रहता अपने होने का भी, तब बेहोशी हमें पता नहीं लगने देती कि होश पूरा जा चुका है। ठीक भी है बेहोशी ना हो तो पता कैसे लगाइएगा की होश में रहना क्या होता है, विपरीत से ही दूसरे विपरीत को प्रकाश मिलता है अन्यथा महत्व क्या रह जायेगा किसी भी बात का फिर तो सही भी ना रहेगा गलत भी ना रहेगा सब शून्य रहेगा। बेहोशी भी रूकती नहीं हमेशा के लिए कभी आते हैं ऐसे क्षण भी जब एक दम से यूटूर्न मार जाती है आपकी नियति, आपको लगता है जैसे आँधी आयी कोई और उसने सब साफ कर दिया, बेहोशी गिर गयी धड़ाम से जमीन पर, आपसे अलग होकर। अभी आप देख पा रहे हो बाहर की चीजें साफ साफ, आपको दिख रहा है कि बेहोशी में जो कुछ चल रहा था वो मेरे भीतर कभी नही चला। जो भी था सब बाहर की बात थी, मैं तो बस भूल गया था खुद को बेहोशी में, ध्यान ना रहा था कि सब जो चल रहा था कोई स्वप्न था। खैर जो भी था सही था, जैसी प्रभु की इच्छा, जब मन किया ध्यान में डुबो दिया जब मन कि
आज विजयादशमी के मौके पर , एक व्यंग मेरे दिमाग में अनायास चल रहा है! पुतला शायद रावण का फूंका जायेगा, मगर मेरे अंतःकरण में एक रावण जल रहा है| तर्क-कुतर्क व्यापक हुआ है, हठी, मूढ़ी भी बुद्धिजीवी बना है! आज दशहरा के मौके पर कोई सीता पक्ष तो, कोई रावण पक्ष की पैरवी में लगा है| एक व्यंग मेरा भी इस मुक़दमे में जोड़ लो, विचारों को एक और नया मोड़ दो! देखो राम ने सीता का त्याग किया था, इसके लिए उन्हें मैं कुछ देर के लिए दोषी मानता हूँ| दोष-निर्दोष, कोप-प्रकोप, समर्थन-विद्रोह, इन सबको चंद पंक्तियों में बखानता हूँ| अगर बात करें हम न्यायपालिका की, तो दोषी ठहराओ हर एक सम्राट को जो युद्ध में विजयी हुआ! क्योंकि सैनिकों की हत्या करके, उसने भी तो अपराध अपने सिर लिया| दोषी वो अरि पक्ष भी है, क्योंकि संख्या थोड़ी कम सही, मगर हत्याएं तो उसने भी जरुर की होंगी! दोषी ये सारे बुद्धिजीवी भी हैं, क्योंकि कुतर्क गढ़ना भी एक अपराध की श्रेणी में आता है! दोषी मैं भी हूँ, क्योंकि मिथ्या कहानियाँ गढ़ना भी दंडनीय अपराध है! दोषी आप भी हैं न्यायपालिका के अनुसार, क्योंकि मिथ्या और निंदा सुनना भी अक्षम्य पाप है| अंत में दोषी