कभी कभी घिर जाते हैं हम गहरे किसी दलदल में, फँस जाते हैं जिंदगी के चक्के किसी कीचड़ में, तब जिंदगी चलती भी है तो रेंगकर, लगता है सब रुका हुआ सा। बेहोशी में लगता है सब सही है, पता नहीं रहता अपने होने का भी, तब बेहोशी हमें पता नहीं लगने देती कि होश पूरा जा चुका है। ठीक भी है बेहोशी ना हो तो पता कैसे लगाइएगा की होश में रहना क्या होता है, विपरीत से ही दूसरे विपरीत को प्रकाश मिलता है अन्यथा महत्व क्या रह जायेगा किसी भी बात का फिर तो सही भी ना रहेगा गलत भी ना रहेगा सब शून्य रहेगा। बेहोशी भी रूकती नहीं हमेशा के लिए कभी आते हैं ऐसे क्षण भी जब एक दम से यूटूर्न मार जाती है आपकी नियति, आपको लगता है जैसे आँधी आयी कोई और उसने सब साफ कर दिया, बेहोशी गिर गयी धड़ाम से जमीन पर, आपसे अलग होकर। अभी आप देख पा रहे हो बाहर की चीजें साफ साफ, आपको दिख रहा है कि बेहोशी में जो कुछ चल रहा था वो मेरे भीतर कभी नही चला। जो भी था सब बाहर की बात थी, मैं तो बस भूल गया था खुद को बेहोशी में, ध्यान ना रहा था कि सब जो चल रहा था कोई स्वप्न था। खैर जो भी था सही था, जैसी प्रभु की इच्छा, जब मन किया ध्यान में डुबो दिया जब मन कि
ये कविता उस स्थिति के बारे में लिखी गयी है| जब किसी नौकरी की तलाश में कोई बेरोजगार नौजवान युवा गांव से शहर का रुख करता है तो गर्मी में उसका हाल कुछ ऐसा हो जाता है- IMG credit- https://commons.wikimedia.org/wiki/File:A_view_of_Road_Traffic_Chandagaur_to_New_Delhi_India_Highways.jpg गर्म मौसम और शहर का तापमान स्तर, यहां होता है माहौल औरों से इतर! लू के थपेड़ों से जलता बदन, काल के गाल में समा जाती है वो मदमस्त पवन ! वो सड़कों से उड़ती तेज धूल , जैसे कोई चुभा रहा कोई गर्म शूल! आँखें पथरा गयी हैं मंजिल की तलब में , सब जगह घूम रहा हूँ मैं बेमतलब में! प्यास के मारे गला सूख गया है, पानी का ना कोई अता पता है! प्रदूषण की कालिख चेहरे पे लग रही है, आज आसमान से भी मानो आग बरस रही है! जहाँ नीम पीपल के वृक्ष थे, वहां अब मकान खड़े हैं ! जो 2-4 पेड़ भाग्यवश बच गए थे , आज वो भी बिल्कुल शांत खड़े हैं! कुछ कीकड के पेड़ बेज़ार खड़े हैं, लोग तो उसकी बनावटी छाँव में भी लगातार खड़े हैं! आँखें टोह रहीं हैं मंजिल की तलाश, सुबह से नहीं मिला सही दिशा में निकास! राहों की पहेली उलझती जा रही है, हर एक गली के बाद एक जैसी ग