कभी कभी घिर जाते हैं हम गहरे किसी दलदल में, फँस जाते हैं जिंदगी के चक्के किसी कीचड़ में, तब जिंदगी चलती भी है तो रेंगकर, लगता है सब रुका हुआ सा। बेहोशी में लगता है सब सही है, पता नहीं रहता अपने होने का भी, तब बेहोशी हमें पता नहीं लगने देती कि होश पूरा जा चुका है। ठीक भी है बेहोशी ना हो तो पता कैसे लगाइएगा की होश में रहना क्या होता है, विपरीत से ही दूसरे विपरीत को प्रकाश मिलता है अन्यथा महत्व क्या रह जायेगा किसी भी बात का फिर तो सही भी ना रहेगा गलत भी ना रहेगा सब शून्य रहेगा। बेहोशी भी रूकती नहीं हमेशा के लिए कभी आते हैं ऐसे क्षण भी जब एक दम से यूटूर्न मार जाती है आपकी नियति, आपको लगता है जैसे आँधी आयी कोई और उसने सब साफ कर दिया, बेहोशी गिर गयी धड़ाम से जमीन पर, आपसे अलग होकर। अभी आप देख पा रहे हो बाहर की चीजें साफ साफ, आपको दिख रहा है कि बेहोशी में जो कुछ चल रहा था वो मेरे भीतर कभी नही चला। जो भी था सब बाहर की बात थी, मैं तो बस भूल गया था खुद को बेहोशी में, ध्यान ना रहा था कि सब जो चल रहा था कोई स्वप्न था। खैर जो भी था सही था, जैसी प्रभु की इच्छा, जब मन किया ध्यान में डुबो दिया जब मन कि
कुदरत भी क्या खूब खेलती है पहले खुद अंजान लोगों को एक दूसरे से मिला देती है , सारे मोह बंधन ,रिश्ते नाते बनाती है फिर एक क्षण में सब कुछ खत्म
बाद में रह जाती हैं सिर्फ यादें और जब ऐसी यादें आती हैं तो साथ में अश्रु धारा अनायास ही निकल आती है !
शक्तिप्रसाद की स्थिति उस हंस के जैसी है जिसका जोड़ा अब टूट चुका है और हंसिनी के वापस आने की अब कोई उम्मीद बाकि बची नहीं है !
वो घर के बाहर दरवाजे के बाईं तरफ वाले कोने पर जो खाट पड़ी है वहां अब शक्तिप्रसाद ने ठिकाना बना लिया है , सारा दिन यहीं एक जगह बैठे बैठे बिता देते हैं वहीं बैठे-बैठे और मंदिर जाना तो बिलकुल बन्द है मानो भगवान् से रुष्ट हों !
बच्चे कब तक रुके रहते उनकी भी अपनी ज़िन्दगी है भाग दौड़ भरी , धीरे धीरे सभी विदा हो गए अब बस बचे थे सुधीर और सुधीर की पत्नी , बच्चे तो कबके जा चुके आखिर भई उनके स्कूल्स थे , अंग्रेजी स्कूल में बच्चे पढ़ते हैं ज्यादा छुट्टी भी तो नहीं ले सकते पहले जमाने कुछ और थे जब लोग एक महीने ननिहाल में बिता देते थे और स्कूल वाले भी कुछ नहीं कहते थे मगर आजकल तो घर फ़ोन कर दिया जाता है कि आपका बच्चा स्कूल क्यों नहीं आ रहा है ?
खैर इतनी लंबी छुट्टी तो सुधीर की भी नहीं थीं जैसे तैसे दफ्तर में अर्जी दी थी तब जाके १५ दिन की छुट्टी मुहैय्या करायी गयीं थी अब तो वो भी पूरी होने जा रहीं हैं , सभी रिश्तेदार बोलके गये हैं अपने पिताजी को भी साथ ही ले जाना इन्हें यहां गांव में कौन रोटी देगा ?
ठीक ही कह रहे थे सब लोग आजकल कौन किसकी पूछ कर सकता है खुद अपने परिवार की नहीं करते कुछ लोग तो पडोसी की तो कोई जब करेगा !
वैसे भी बुढ़ापे में एक दूसरे के अलावा और कौन इतना सहारा दे सकता है , ऐसे समझो जैसे दोनों एक दूसरे की लाठी हों जब तक लाठी ना हो तो घूम फिर नहीं सकते !
सुधीर बाहर बैठा है , बाकि कुछ गांव के लोग भी बैठे हैं आस पास सुधीर शक्तिप्रसाद से धीमे स्वर में बोलता है "पिता जी हम लोग कल सुबह शहर निकलेंगे और घर पर ताला लगाकर चाबी चाची को दे चलेंगें वो कभी कभी आंगन में झाड़ू लगा दिया करेंगी !"
शक्तिप्रसाद तो किसी और ख्याल में डूबे थे शायद या फिर बात सुनकर भी अनसुनी कर दी और कुछ बोले नहीं अब सुधीर भी शान्त हो गया अपनी बात पूरी करने के बाद , कुछ समय के लिए शांति रही तभी बीच सन्नाटे को चीरते हुए आवाज निकली -
"हाँ चाचा अब आप भी जाइए वैसे भी गांव में कहाँ कुछ रखा है सुधीर के साथ रहेंगे तो बाल बच्चे पर भी बड़े बूढ़े का साया रहेगा और आपका भी मन लगा रहेगा !"
ये स्वर थे पड़ौस के कालू के , कालू उम्र में तो सुधीर से १०-१२ साल बड़ा था मगर पड़ौस में रहता था तो दोनों दोस्त जैसे ही रहते थे,हाँ दोस्त ही समझो जो एक दूसरे के सुख दुख में काम आ जाएं वो दोस्त ही कहा जायेगा वरना आजकल तो दोस्ती की परिभाषा ही बदल गयी है !
"हाँ ठीक है " बड़ी देर में शक्तिप्रसाद ने बिना मन के ये बात बोली मानो ये बात बोलने में उन्हें बहुत कष्ट हुआ हो !
और कहते भी क्या बेचारे उनकी हालत तो उस मुसीबत में फंसे राहगीर के जैसी है जिसके सामने कुंआ है और पीछे गहरी खाई अगर आगे बढ़ा तो कुँए में गिरेगा और पीछे हटा तो गहरी खाई में गुम हो जायेगा और ये घर , गांव उसके लिए खाई ही तो हैं मधुमती की स्मृतियों की गहरी अंधकारमयी खाई जो संकरी भी है इसलिए शक्ति प्रसाद ने भी कुँए में कूदने का मन बना लिया था!
अब आप सोच रहे होंगे सुधीर के साथ जाना कुआँ कैसे हुआ तो वो मैं बताता हूँ
जिस व्यक्ति ने बचपन ,जवानी और प्रौढ़ , बुढ़ापा सब कुछ इसी गांव में देखा है उसके लिए शहर जाना किसी कुँए से कम भी नहीं है !
सावन , बरसात , पूस की वो सर्द रात सारे रंग देखें हैं उसने अपने खेतों में , जब जब फागुन में गेंहू की फसल लहलहाती थी तो उसे ऐसा आनंद मिलता था मानो कोई छोटा बच्चा चलना सीख गया हो और बच्चे का बाप उसे देखकर प्रफ्फुलित हो रहा हो !
और बरसात के बाद धान की हरियाली उसे इतनी ठंडक पहुंचाती थी जितना किसी हवेली में लगी ए. सी. मशीन भी नहीं पहुंचाती होगी और पशुओं के साथ तो वो ऐसे उपहास करता था मानो संगी साथी हों !
अब आप ही बताओ कोई कैसे उन खड़ंजों को भूल जाये जिनसे उसकी वर्षों पुरानी जान पहचान थी वो गलियां जो बोलती तो कुछ नहीं हैं मगर शक्तिप्रसाद के कदमों की आहट को भलीभांति जानती थीं अब आप ही बताओ इतने सगे संबंधी को छोड़कर किसी अनजान पराये शहर में जायेगा तो उसके लिए चुनौती से कम है क्या ? वो शहर की तेज़ रफ़्तार जिसमें परायेपन की पूर्ण झलक है , वो शहर की मतलबी हवा जो पल पल अहसास कराती है कि यहां अपनेपन का कोई स्थान नहीं है और शहरों की रौनक चमक दमक बताती है कि अपने मजे में मस्त रहो सब किसी से कोई हमदर्दी मत रखो क्योंकि यहां तेरा कोई अपना नहीं है !
शहर में मकान छोटे होते हैं इन छोटे मकानों से मुझे कुछ याद आया जो कहीं पढ़ा था मैंने
"छोड़ आये जो हजार गज की हवेली गांव में
वो आज शहर में पचास गज के मकान को अपनी तरक्की बताते हैं "
खैर ये सब मेरे दिमाग की उपज है सबका नजरिया एक जैसा नहीं होता और शहर में सब छोटे मकान में भी नहीं रहते कुछ लोग बड़ी हवेलियों में भी रहते हैं अपने छोटे छोटे दिल और २-४ पालतू महंगे कुत्तों के साथ !
अब कहानी पर आते हैं , सुधीर तो सारी तैयारी कर चुका है गाड़ी बाहर खड़ी है , शक्तिप्रसाद के कपडे भी एक बैग में रख लिए और अपना सामान भी रख लिया बांधकर रख दिया और घर पर ताला लगा दिया गया चाबी पड़ौस की चाची को दे भी दी और अब सारे लोग गाड़ी में बैठकर निकल पड़े शहर की ओर
गाड़ी आगे बढ़ रही है और विचारों का पहिया भी सबके दिमाग में बराबर चल रहा है खैर ये कोई पहली बार नहीं हो रहा , बहुत लोग हर साल अपना घर छोड़कर शहर बस जाते हैं !
आगे पढ़ें !
..........
Part 1
Part 2
Part 3
Part 4
Part 5
Part 6
Part 7
Part 8
Part 9
© Confused Thoughts
ये वाला भाग मैंने लिख लिया था बहुत दिनों पहले मगर कुछ कारणों से मुझे गायब होना पड़ा और मैने आपके बहुत सारे पोस्ट मिस कर दिए आपसे क्षमा चाहूँगा कभी कभी सब कुछ अपने हाथ में नहीं होता मगर अब फिरसे उपस्थित हूँ आशा है आप अपने विचार कमेंट में बताएंगे धन्यवाद
बाद में रह जाती हैं सिर्फ यादें और जब ऐसी यादें आती हैं तो साथ में अश्रु धारा अनायास ही निकल आती है !
शक्तिप्रसाद की स्थिति उस हंस के जैसी है जिसका जोड़ा अब टूट चुका है और हंसिनी के वापस आने की अब कोई उम्मीद बाकि बची नहीं है !
वो घर के बाहर दरवाजे के बाईं तरफ वाले कोने पर जो खाट पड़ी है वहां अब शक्तिप्रसाद ने ठिकाना बना लिया है , सारा दिन यहीं एक जगह बैठे बैठे बिता देते हैं वहीं बैठे-बैठे और मंदिर जाना तो बिलकुल बन्द है मानो भगवान् से रुष्ट हों !
बच्चे कब तक रुके रहते उनकी भी अपनी ज़िन्दगी है भाग दौड़ भरी , धीरे धीरे सभी विदा हो गए अब बस बचे थे सुधीर और सुधीर की पत्नी , बच्चे तो कबके जा चुके आखिर भई उनके स्कूल्स थे , अंग्रेजी स्कूल में बच्चे पढ़ते हैं ज्यादा छुट्टी भी तो नहीं ले सकते पहले जमाने कुछ और थे जब लोग एक महीने ननिहाल में बिता देते थे और स्कूल वाले भी कुछ नहीं कहते थे मगर आजकल तो घर फ़ोन कर दिया जाता है कि आपका बच्चा स्कूल क्यों नहीं आ रहा है ?
खैर इतनी लंबी छुट्टी तो सुधीर की भी नहीं थीं जैसे तैसे दफ्तर में अर्जी दी थी तब जाके १५ दिन की छुट्टी मुहैय्या करायी गयीं थी अब तो वो भी पूरी होने जा रहीं हैं , सभी रिश्तेदार बोलके गये हैं अपने पिताजी को भी साथ ही ले जाना इन्हें यहां गांव में कौन रोटी देगा ?
ठीक ही कह रहे थे सब लोग आजकल कौन किसकी पूछ कर सकता है खुद अपने परिवार की नहीं करते कुछ लोग तो पडोसी की तो कोई जब करेगा !
वैसे भी बुढ़ापे में एक दूसरे के अलावा और कौन इतना सहारा दे सकता है , ऐसे समझो जैसे दोनों एक दूसरे की लाठी हों जब तक लाठी ना हो तो घूम फिर नहीं सकते !
सुधीर बाहर बैठा है , बाकि कुछ गांव के लोग भी बैठे हैं आस पास सुधीर शक्तिप्रसाद से धीमे स्वर में बोलता है "पिता जी हम लोग कल सुबह शहर निकलेंगे और घर पर ताला लगाकर चाबी चाची को दे चलेंगें वो कभी कभी आंगन में झाड़ू लगा दिया करेंगी !"
शक्तिप्रसाद तो किसी और ख्याल में डूबे थे शायद या फिर बात सुनकर भी अनसुनी कर दी और कुछ बोले नहीं अब सुधीर भी शान्त हो गया अपनी बात पूरी करने के बाद , कुछ समय के लिए शांति रही तभी बीच सन्नाटे को चीरते हुए आवाज निकली -
"हाँ चाचा अब आप भी जाइए वैसे भी गांव में कहाँ कुछ रखा है सुधीर के साथ रहेंगे तो बाल बच्चे पर भी बड़े बूढ़े का साया रहेगा और आपका भी मन लगा रहेगा !"
ये स्वर थे पड़ौस के कालू के , कालू उम्र में तो सुधीर से १०-१२ साल बड़ा था मगर पड़ौस में रहता था तो दोनों दोस्त जैसे ही रहते थे,हाँ दोस्त ही समझो जो एक दूसरे के सुख दुख में काम आ जाएं वो दोस्त ही कहा जायेगा वरना आजकल तो दोस्ती की परिभाषा ही बदल गयी है !
"हाँ ठीक है " बड़ी देर में शक्तिप्रसाद ने बिना मन के ये बात बोली मानो ये बात बोलने में उन्हें बहुत कष्ट हुआ हो !
और कहते भी क्या बेचारे उनकी हालत तो उस मुसीबत में फंसे राहगीर के जैसी है जिसके सामने कुंआ है और पीछे गहरी खाई अगर आगे बढ़ा तो कुँए में गिरेगा और पीछे हटा तो गहरी खाई में गुम हो जायेगा और ये घर , गांव उसके लिए खाई ही तो हैं मधुमती की स्मृतियों की गहरी अंधकारमयी खाई जो संकरी भी है इसलिए शक्ति प्रसाद ने भी कुँए में कूदने का मन बना लिया था!
अब आप सोच रहे होंगे सुधीर के साथ जाना कुआँ कैसे हुआ तो वो मैं बताता हूँ
जिस व्यक्ति ने बचपन ,जवानी और प्रौढ़ , बुढ़ापा सब कुछ इसी गांव में देखा है उसके लिए शहर जाना किसी कुँए से कम भी नहीं है !
सावन , बरसात , पूस की वो सर्द रात सारे रंग देखें हैं उसने अपने खेतों में , जब जब फागुन में गेंहू की फसल लहलहाती थी तो उसे ऐसा आनंद मिलता था मानो कोई छोटा बच्चा चलना सीख गया हो और बच्चे का बाप उसे देखकर प्रफ्फुलित हो रहा हो !
और बरसात के बाद धान की हरियाली उसे इतनी ठंडक पहुंचाती थी जितना किसी हवेली में लगी ए. सी. मशीन भी नहीं पहुंचाती होगी और पशुओं के साथ तो वो ऐसे उपहास करता था मानो संगी साथी हों !
अब आप ही बताओ कोई कैसे उन खड़ंजों को भूल जाये जिनसे उसकी वर्षों पुरानी जान पहचान थी वो गलियां जो बोलती तो कुछ नहीं हैं मगर शक्तिप्रसाद के कदमों की आहट को भलीभांति जानती थीं अब आप ही बताओ इतने सगे संबंधी को छोड़कर किसी अनजान पराये शहर में जायेगा तो उसके लिए चुनौती से कम है क्या ? वो शहर की तेज़ रफ़्तार जिसमें परायेपन की पूर्ण झलक है , वो शहर की मतलबी हवा जो पल पल अहसास कराती है कि यहां अपनेपन का कोई स्थान नहीं है और शहरों की रौनक चमक दमक बताती है कि अपने मजे में मस्त रहो सब किसी से कोई हमदर्दी मत रखो क्योंकि यहां तेरा कोई अपना नहीं है !
शहर में मकान छोटे होते हैं इन छोटे मकानों से मुझे कुछ याद आया जो कहीं पढ़ा था मैंने
"छोड़ आये जो हजार गज की हवेली गांव में
वो आज शहर में पचास गज के मकान को अपनी तरक्की बताते हैं "
खैर ये सब मेरे दिमाग की उपज है सबका नजरिया एक जैसा नहीं होता और शहर में सब छोटे मकान में भी नहीं रहते कुछ लोग बड़ी हवेलियों में भी रहते हैं अपने छोटे छोटे दिल और २-४ पालतू महंगे कुत्तों के साथ !
अब कहानी पर आते हैं , सुधीर तो सारी तैयारी कर चुका है गाड़ी बाहर खड़ी है , शक्तिप्रसाद के कपडे भी एक बैग में रख लिए और अपना सामान भी रख लिया बांधकर रख दिया और घर पर ताला लगा दिया गया चाबी पड़ौस की चाची को दे भी दी और अब सारे लोग गाड़ी में बैठकर निकल पड़े शहर की ओर
गाड़ी आगे बढ़ रही है और विचारों का पहिया भी सबके दिमाग में बराबर चल रहा है खैर ये कोई पहली बार नहीं हो रहा , बहुत लोग हर साल अपना घर छोड़कर शहर बस जाते हैं !
आगे पढ़ें !
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Part 1
Part 2
Part 3
Part 4
Part 5
Part 6
Part 7
Part 8
Part 9
© Confused Thoughts
ये वाला भाग मैंने लिख लिया था बहुत दिनों पहले मगर कुछ कारणों से मुझे गायब होना पड़ा और मैने आपके बहुत सारे पोस्ट मिस कर दिए आपसे क्षमा चाहूँगा कभी कभी सब कुछ अपने हाथ में नहीं होता मगर अब फिरसे उपस्थित हूँ आशा है आप अपने विचार कमेंट में बताएंगे धन्यवाद
बहुत अच्छा बहुत अच्छा लिखते हैं आप। आपके ब्लौग पर लगा शिव जी का इमेज भी बहुत अट्रैक्टिव है।
ReplyDeleteDhanyavaad mam
ReplyDeleteApne MERI Choti si rachna pdhi
🙏🙏
Haan I am mad about that one SB jgh same vhi background image
आपकी रचना बहुत अच्छी है और background image is really awsome. I loved it.
ReplyDeleteये मेरे लिए हर्ष का विषय है
ReplyDelete🙏🙏🙏
I loved this part most. जिस तरह से आपने गाँव से शहर में मजबूरी के कारण जाने वाले इंसान की व्यथा सुनाई है, वह एक दम सटीक है. जो गाँव में पला बड़ा हो और जिसे अपने आखिरी समय में ही अपने घर का त्याग करना पड़े , उसे खुशी तो कतई नहीं हो सकती. मुझे यह जान के बहुत खुशी होती है कि हमारी जेनेरेशन के लोग भी गाँव में रहने की मेहत्ता जानते हैं. Great post!
ReplyDeleteThank you so much di
ReplyDeleteKeep reading and motivating me like this !
🙏
You're most welcome, little one :)
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