जैसे किसी बाग में पौधों पर फूल ना खिल सकें तो हवा, पानी, खाद, बीज कई कारण हो सकते हैं परंतु इन सबमें से मुख्य कारण माली का सजग ना होना माना जायेगा, ऐसे ही अगर किसी बच्चे के चेहरे पर अगर फूल ना खिल रहे हों, उसके भीतर से ऊर्जा उछाल नहीं मार रही तो इसका पूरा दोष माता पिता को दिया जाना चाहिए। ~ #ShubhankarThinks
दुःख और सुख दोनों एक दूसरे के संगी हैं , सुख आता है तो इसके पीछे पीछे दुःख भी चला आता है !
खैर बेटा बहु को शहर गये पूरा एक वर्ष व्यतीत हो गया है इस बीच दीपावली पर सभी लोग इकठठे हुए थे मधुमती का वश चलता तो दीपावली के त्यौहार को रमजान के सरीखा एक महीने लम्बा खींच देतीं मगर ये उसके नियंत्रण से बाहर की बात है आखिर उसका वश तो खुद के परिवार पर भी नहीं है जिनसे वो यह भी नहीं कह सकती की दो चार दिन और रुक जाओ !
अब उस बेचारी को कौन समझाए सबकी अपनी व्यस्त जिंदगी है मगर उसके हृदय की टीस कौन जाने जिसकी जिंदगी बस यही है इन सबके बिना उसका जीवन एकदम नीरस है !
शक्तिप्रसाद भी बेचारे क्या करें अब तो वो कुश्ती देखने भी नहीं जाते क्योंकि वो नहीं चाहते मधुमती घर पर अकली रोती रहे , हाँ वो अलग बात है कि वो कुछ बोल नहीं पाते अब क्या करें घर गृहस्थ में कभी ऐसा अवसर ही नहीं मिला की दोनों ने प्रेमपूर्ण वार्तालाप की हो अब इसे अखड़पन कहे या शर्मीला स्वाभाव मगर इन सबके बीच प्रेम कहीं छुपा था वरना वो अपनी प्रिय कुश्ती छोड़ कर घर पर नहीं रुकते हाँ वो बात अलग है अब उन्होंने घर पर पशुओं से मित्रता कर ली है उनके साथ उपहास ऐसे करते हैं मानो उनका कोई मित्र हो और करें भी तो क्या आप बताओ अकेला इंसान इतने बड़े घर में यही सब करेगा ना !
ये विशाल सा घर जिसमे दो शान्त प्राणी एक छोटे कोने में ऐसे दुबक के पड़े रहते हैं मानो ये घर एक बड़ा सा मुह खोल के उन्हें खाना चाहता है और धीरे धीरे ये अपने मुह को बड़ा कर रहा है !और वो बड़ा सा बरामदा जहाँ किसी रोज कलरव हुआ करता था आज एक दम शांत , वीरान पड़ा है पंछी उड़ चुके हैं अब उस बाग़ की रौनके कहीं गायब हो गयी हैं अब यहां मातम जैसा माहौल है मातम में फिर भी लोग बीच बीच में रोना चीखना कर लेते हैं मधुमती बेचारी वो भी नहीं कर सकती यहां कौन सुनेगा उसकी चीखों को ?ऊपर से ऐसा करके वो शक्तिप्रसाद को ही कष्ट पहुंचाएगी सभी दुखों को वो अपने अंदर ऐसे समायी है मानो गहरे भंवर में विशालकाय हाथी ऐसे डूब जाये मानो को खिलौना हो छोटा सा !बस जब कभी वो सोचती तो अश्रु ऐसे बाहर निकल आते थे मानो दूर कोस बहती हुई नदी का पानी वो ऊँचे से पर्वत की एक शिला से रिस रिस कर निकल जाता है जिसे कोई चाहकर भी रोक नहीं सकता !
किसी ने कहा है कम खाना और गम खाना हर किसी की वश की बात नहीं है वहीं एक बात और है कोई भी इंसान कम खाने से दुर्बल नहीँ होता होता मगर गम खाने से अस्वस्थ जरूर हो जाता है , या फिर आप कहेंगे बुढ़ापे के लक्षण हैं ?वैसे मधुमति को गम कोई खास तो था नहीं मगर ये बात कहना बिलकुल ऐसा है जैसे आप फुटपाथ पर बैठी उस औरत के सारे अमरुद सड़क पर फ़ेंक दो और बोलो सिर्फ १०० रूपये के ही तो थे मगर आपको क्या पता उस १०० रूपये से १० रूपये का लाभ मिलता हो जिससे उसको रोटी नसीब होती है , क्या पता ये उसके जीवन की पूर्ण कमाई थी ?
ऐसा नहीं है बहु बेटे समझते नहीं हो ?मगर बुढ़ापे में व्यवहार बच्चों जैसा हो जाता है बस फर्क इतना है बचपन में जब बच्चा जिद करता है तो माँ बाप कैसे भी वो खिलौना दिलवा ही देते हैं वहीँ बूढा किसी बात की जिद्द करे तो उसकी कौन सुनेगा और वैसे भी उसके माँ बाप जीवित कहाँ हैं जो झट से उसकी जिद पूरी कर दें !
बीस साल बच्चों की जिद को सर आँखों पर रख लेते हैं जो लोग , बाद में बुढ़ापा आने पर उन लोगों का चार दिन का बचपना घ्रणित लगने लगता है !
उनके अकेलेपन का आभास में आपको कराता हूँ "वो कभी खुद से बात कर लेते थे कभी आईने में जाकर खुद से बात कर लेते थे !"
जब इंसान का बुरा वक़्त आता है तो ग़मों के पहाड़ टूटने लगते हैं इस बार कुछ ऐसा हुआ शक्तिप्रसाद के साथ , बच्चों के जाने के का गम कम था क्या और अब ये ऊपर से इतना बड़ा पत्थर उनके ऊपर ऐसे गिरा है मानो भूस्खलन हो गया हो अब ये तो होना ही था एक दिन ...........
आगे पढ़ते रहिये !
Part 1
Part 2
Part 3
Part 4
Part 5
Part 6
Part 7
Part 8
Part 9
और अपने विचार मुझ तक पहुंचाते रहें
© Confused Thoughts
खैर बेटा बहु को शहर गये पूरा एक वर्ष व्यतीत हो गया है इस बीच दीपावली पर सभी लोग इकठठे हुए थे मधुमती का वश चलता तो दीपावली के त्यौहार को रमजान के सरीखा एक महीने लम्बा खींच देतीं मगर ये उसके नियंत्रण से बाहर की बात है आखिर उसका वश तो खुद के परिवार पर भी नहीं है जिनसे वो यह भी नहीं कह सकती की दो चार दिन और रुक जाओ !
अब उस बेचारी को कौन समझाए सबकी अपनी व्यस्त जिंदगी है मगर उसके हृदय की टीस कौन जाने जिसकी जिंदगी बस यही है इन सबके बिना उसका जीवन एकदम नीरस है !
शक्तिप्रसाद भी बेचारे क्या करें अब तो वो कुश्ती देखने भी नहीं जाते क्योंकि वो नहीं चाहते मधुमती घर पर अकली रोती रहे , हाँ वो अलग बात है कि वो कुछ बोल नहीं पाते अब क्या करें घर गृहस्थ में कभी ऐसा अवसर ही नहीं मिला की दोनों ने प्रेमपूर्ण वार्तालाप की हो अब इसे अखड़पन कहे या शर्मीला स्वाभाव मगर इन सबके बीच प्रेम कहीं छुपा था वरना वो अपनी प्रिय कुश्ती छोड़ कर घर पर नहीं रुकते हाँ वो बात अलग है अब उन्होंने घर पर पशुओं से मित्रता कर ली है उनके साथ उपहास ऐसे करते हैं मानो उनका कोई मित्र हो और करें भी तो क्या आप बताओ अकेला इंसान इतने बड़े घर में यही सब करेगा ना !
ये विशाल सा घर जिसमे दो शान्त प्राणी एक छोटे कोने में ऐसे दुबक के पड़े रहते हैं मानो ये घर एक बड़ा सा मुह खोल के उन्हें खाना चाहता है और धीरे धीरे ये अपने मुह को बड़ा कर रहा है !और वो बड़ा सा बरामदा जहाँ किसी रोज कलरव हुआ करता था आज एक दम शांत , वीरान पड़ा है पंछी उड़ चुके हैं अब उस बाग़ की रौनके कहीं गायब हो गयी हैं अब यहां मातम जैसा माहौल है मातम में फिर भी लोग बीच बीच में रोना चीखना कर लेते हैं मधुमती बेचारी वो भी नहीं कर सकती यहां कौन सुनेगा उसकी चीखों को ?ऊपर से ऐसा करके वो शक्तिप्रसाद को ही कष्ट पहुंचाएगी सभी दुखों को वो अपने अंदर ऐसे समायी है मानो गहरे भंवर में विशालकाय हाथी ऐसे डूब जाये मानो को खिलौना हो छोटा सा !बस जब कभी वो सोचती तो अश्रु ऐसे बाहर निकल आते थे मानो दूर कोस बहती हुई नदी का पानी वो ऊँचे से पर्वत की एक शिला से रिस रिस कर निकल जाता है जिसे कोई चाहकर भी रोक नहीं सकता !
किसी ने कहा है कम खाना और गम खाना हर किसी की वश की बात नहीं है वहीं एक बात और है कोई भी इंसान कम खाने से दुर्बल नहीँ होता होता मगर गम खाने से अस्वस्थ जरूर हो जाता है , या फिर आप कहेंगे बुढ़ापे के लक्षण हैं ?वैसे मधुमति को गम कोई खास तो था नहीं मगर ये बात कहना बिलकुल ऐसा है जैसे आप फुटपाथ पर बैठी उस औरत के सारे अमरुद सड़क पर फ़ेंक दो और बोलो सिर्फ १०० रूपये के ही तो थे मगर आपको क्या पता उस १०० रूपये से १० रूपये का लाभ मिलता हो जिससे उसको रोटी नसीब होती है , क्या पता ये उसके जीवन की पूर्ण कमाई थी ?
ऐसा नहीं है बहु बेटे समझते नहीं हो ?मगर बुढ़ापे में व्यवहार बच्चों जैसा हो जाता है बस फर्क इतना है बचपन में जब बच्चा जिद करता है तो माँ बाप कैसे भी वो खिलौना दिलवा ही देते हैं वहीँ बूढा किसी बात की जिद्द करे तो उसकी कौन सुनेगा और वैसे भी उसके माँ बाप जीवित कहाँ हैं जो झट से उसकी जिद पूरी कर दें !
बीस साल बच्चों की जिद को सर आँखों पर रख लेते हैं जो लोग , बाद में बुढ़ापा आने पर उन लोगों का चार दिन का बचपना घ्रणित लगने लगता है !
उनके अकेलेपन का आभास में आपको कराता हूँ "वो कभी खुद से बात कर लेते थे कभी आईने में जाकर खुद से बात कर लेते थे !"
जब इंसान का बुरा वक़्त आता है तो ग़मों के पहाड़ टूटने लगते हैं इस बार कुछ ऐसा हुआ शक्तिप्रसाद के साथ , बच्चों के जाने के का गम कम था क्या और अब ये ऊपर से इतना बड़ा पत्थर उनके ऊपर ऐसे गिरा है मानो भूस्खलन हो गया हो अब ये तो होना ही था एक दिन ...........
आगे पढ़ते रहिये !
Part 1
Part 2
Part 3
Part 4
Part 5
Part 6
Part 7
Part 8
Part 9
और अपने विचार मुझ तक पहुंचाते रहें
© Confused Thoughts
....क्या बोलूँ मैं बस अब बेसब्री से अगले भाग का इंतज़ार रहेगा, यूँ लग रहा मानों कहानी घट रहा हैं बस इधर हीं...😒😒
ReplyDeleteAgr yah Sach h to meri writing yhi kamyab hoti h
ReplyDeleteSadar pranam ap jese pathakon ko
Asha h ap aise hi bne rhenge
Dhanyavaad mam
😊
ReplyDeleteआपका अकेलेपन और बुढ़ापे का वर्णन एक दम सटीक है. और वोह आईने में बात करने का उदाहरण मुझे बहुत अच्छा लगा. पर पति पत्नी की यह हालत देख कर बड़ा दुख होता है, हालांकि यह आज घर घर की कहानी हो गयी है. वह kehte हैँ ना - सत्य कड़वा होता है... बस वैसा ही कुछ है हमारा modernism. पैसे कमाने की इसी इच्छा ने हमें कामयाब भी बनाया है, और कठोर भी. Beautiful narration
ReplyDeleteDhanyavaad mam
ReplyDeleteMera Moto yhi tha likhne ka real chijen achi lgti h bss usi ko story m dalne k chota prayas kia tha
Very well done!
ReplyDeleteThank you so much mam 🙏🙏🙏
ReplyDeleteWelcome 😊
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