प्रेम को जितना भी जाना गया वो बहुत कम जाना गया, प्रेम को किया कम लोगों ने और लिखा ज्यादा गया। ख़ुशी मिली तो लिख दिया बढ़ा चढ़ाकर, मिले ग़म तो बना दिया बीमारी बनाकर। किसी ने बेमन से ही लिख दी दो चार पंक्ति शौकिया तौर पर, कोई शुरुआत पर ही लिखता रहा डुबा डुबा कर। कुछ लगे लोग प्रेम करने ताकि लिखना सीख जाएं, फ़िर वो लिखने में इतने व्यस्त कि भूल गए उसे यथार्थ में उतारना! हैं बहुत कम लोग जो ना बोलते हैं, ना कुछ लिखते हैं उनके पास समय ही नहीं लिखने के लिए, वो डूबे हैं प्रेम में पूरे के पूरे। वो जानते हैं की यह लिखने जितना सरल विषय है ही नहीं इसलिए वो बिना समय व्यर्थ किए कर रहे हैं उस हर पल जीने की। उन्हें दिखाने बताने, समझाने जैसी औपचारिकता की आवश्यकता नहीं दिखती,वो ख़ुद पूरे के पूरे प्रमाण हैं, उनका एक एक अंश इतना पुलकित होगा कि संपर्क में आया प्रत्येक व्यक्ति उस उत्सव में शामिल हुए बिना नहीं रह पायेगा। वो चलते फिरते बस बांट रहे होंगे, रस ही रस। ~ #ShubhankarThinks
पिता को गुजरे कुछ दिन ही गुजरे थे ,
बेटों ने किया फिर सम्पत्ति का मुआयना !
और अब आन पडा था बंटवारा |
कुछ लोग बाहर से बुलाये गये ,
जमीनों के मूल्य आंक पर लगाये गये ,
क्योंकि अब आन पडा था बंटवारा|
कुछ चीजें बाप की कमाई हुईं थी,
कुछ चीजें मां ने सन्दूकों में छुपाई हुई थीं,
आज सबका हिस्सा होगा!
क्योंकि अब आन पडा है बंटवारा|
फिर क्या था जमीन को बाराबर बांटा गया,
हर चीज का बराबर मूल्य आंका गया ,
क्योंकि यही तो कहलाता है बंटवारा |
वो बूढी मां सब देख रही थी,
कभी बिलखती कभी मन ही मन मचल रही थी!
कुछ कसोट रहा था उसे मन ही मन में ,
जाने क्यों उसे भी नहीं रहा था ये बंटवारा|
मां कब तक अपने अन्तर्मन पर काबू पाती?
अपने ह्र्दय के ज्वार भाटा को कब तक दबाती?
फिर बोली कुछ सकपकाकर !
ऐसे कहां पूरा हुआ बंटवारा?
जमीन और चीजें तो सब बांट ली तुमने ,
अब यादें बांटने कौन आयेगा?
जिन्दगी भर खिलाया था तुमको,
उसका हिसाब कौन चुकायेगा ?
मैं अब भी कहती हूं मत करो ये बंटवारा!
बेटे कुछ झुंझलाकर बोले !
मां हमको जीने का हक नहीं है,
किया तो क्या किया उन्होने हमारे लिए ?
क्या ?उनकी सम्पत्ति पर हमारा कोई हक नहीं है !
आज ना रोको मां हमारे लिए जरूरी है ये बंटवारा |
मां अब कुछ शांत हुई फिर मन ही मन में बोली,
बंटवारे में मेरी ममता क्यों बाटते हो दुष्टो?
क्यों खाली करते हो मेरी झोली ?
मिलकर खाने में दोष भी क्या था?
क्या? संग भी नहीं मना सकते दीपावली , होली!
फिर बोली , हाय इतना बुरा होता है ये बंटवारा !
हाय इतना बुरा है ये बंटवारा ||
---- © Confused Thoughts
बेटों ने किया फिर सम्पत्ति का मुआयना !
और अब आन पडा था बंटवारा |
कुछ लोग बाहर से बुलाये गये ,
जमीनों के मूल्य आंक पर लगाये गये ,
क्योंकि अब आन पडा था बंटवारा|
कुछ चीजें बाप की कमाई हुईं थी,
कुछ चीजें मां ने सन्दूकों में छुपाई हुई थीं,
आज सबका हिस्सा होगा!
क्योंकि अब आन पडा है बंटवारा|
फिर क्या था जमीन को बाराबर बांटा गया,
हर चीज का बराबर मूल्य आंका गया ,
क्योंकि यही तो कहलाता है बंटवारा |
वो बूढी मां सब देख रही थी,
कभी बिलखती कभी मन ही मन मचल रही थी!
कुछ कसोट रहा था उसे मन ही मन में ,
जाने क्यों उसे भी नहीं रहा था ये बंटवारा|
मां कब तक अपने अन्तर्मन पर काबू पाती?
अपने ह्र्दय के ज्वार भाटा को कब तक दबाती?
फिर बोली कुछ सकपकाकर !
ऐसे कहां पूरा हुआ बंटवारा?
जमीन और चीजें तो सब बांट ली तुमने ,
अब यादें बांटने कौन आयेगा?
जिन्दगी भर खिलाया था तुमको,
उसका हिसाब कौन चुकायेगा ?
मैं अब भी कहती हूं मत करो ये बंटवारा!
बेटे कुछ झुंझलाकर बोले !
मां हमको जीने का हक नहीं है,
किया तो क्या किया उन्होने हमारे लिए ?
क्या ?उनकी सम्पत्ति पर हमारा कोई हक नहीं है !
आज ना रोको मां हमारे लिए जरूरी है ये बंटवारा |
मां अब कुछ शांत हुई फिर मन ही मन में बोली,
बंटवारे में मेरी ममता क्यों बाटते हो दुष्टो?
क्यों खाली करते हो मेरी झोली ?
मिलकर खाने में दोष भी क्या था?
क्या? संग भी नहीं मना सकते दीपावली , होली!
फिर बोली , हाय इतना बुरा होता है ये बंटवारा !
हाय इतना बुरा है ये बंटवारा ||
---- © Confused Thoughts
Sad reality described beautifully. :)
ReplyDeleteThank you ! I was waiting for your valuable comment 😊
ReplyDeleteWell, a valuable posts deserves a mere comment. :)
ReplyDeleteOh so nice of you 😇
ReplyDeleteबहुत सही
ReplyDeleteलिखते रहिए
बहुत बहुत धन्यवाद मैम
ReplyDeleteमाँ तक के तो टुकड़े कर लिए हमने । बहुत सुंदर रचना बहुत बहुत साधुवाद
ReplyDeleteमेरा उत्साहवर्धन करने के लिए धन्यवाद और आपको मेरा भूरि भूरि प्रणाम
ReplyDeleteखूब खूब आशीर्वाद ।
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