कभी कभी घिर जाते हैं हम गहरे किसी दलदल में, फँस जाते हैं जिंदगी के चक्के किसी कीचड़ में, तब जिंदगी चलती भी है तो रेंगकर, लगता है सब रुका हुआ सा। बेहोशी में लगता है सब सही है, पता नहीं रहता अपने होने का भी, तब बेहोशी हमें पता नहीं लगने देती कि होश पूरा जा चुका है। ठीक भी है बेहोशी ना हो तो पता कैसे लगाइएगा की होश में रहना क्या होता है, विपरीत से ही दूसरे विपरीत को प्रकाश मिलता है अन्यथा महत्व क्या रह जायेगा किसी भी बात का फिर तो सही भी ना रहेगा गलत भी ना रहेगा सब शून्य रहेगा। बेहोशी भी रूकती नहीं हमेशा के लिए कभी आते हैं ऐसे क्षण भी जब एक दम से यूटूर्न मार जाती है आपकी नियति, आपको लगता है जैसे आँधी आयी कोई और उसने सब साफ कर दिया, बेहोशी गिर गयी धड़ाम से जमीन पर, आपसे अलग होकर। अभी आप देख पा रहे हो बाहर की चीजें साफ साफ, आपको दिख रहा है कि बेहोशी में जो कुछ चल रहा था वो मेरे भीतर कभी नही चला। जो भी था सब बाहर की बात थी, मैं तो बस भूल गया था खुद को बेहोशी में, ध्यान ना रहा था कि सब जो चल रहा था कोई स्वप्न था। खैर जो भी था सही था, जैसी प्रभु की इच्छा, जब मन किया ध्यान में डुबो दिया जब मन कि
चैन और सुकून से भरा था मुहल्ला, आवाम ए हिन्द बडी मौज में रहती थी| महफिल ए शायरी करते थे लोग वहां, मुशायरे में होती थीं रौनकें जहां की! कोई शमा मुजलिस में मशगूल होती थी| मुफलिसी में रहते थे वो फकीर वहां के, मगर उनकी बातों में भी अमीरी सी होती थी| हुस्न ए अदा थी तहजीब में उनके, तालीम की पहचान भी अदब बातों से होती थी | एक बाज की नजर ए बाद थी बस्ती पर , उसे आवाम के चैन अमन से तकलीफ सी होती थी| कुदरत का बदस्तूर जमाने पर नागवार गुजरा, उस बाज ने कुछ नापाक तरकीब सी सोची थी| एक जगह थी सबके पानी पीने की, जहां मुहब्बत अदब से सबकी भरपाई होती थी| मजहबी जहर को मिलाया था पानी में , अब पानी की जरूरत तो लगभग सभी को होती थी| पानी पीना जंग ए मैदान बन गया , अब पानी के लिए लोगों में तकरार सी होती थीं| धीरे धीरे जहर असर दिखाने लगा था, बाज की तरकीब अब कामयाब हो रही थी| तकरारों का सिलसिला रफ्तार से बढा फिर, अब मौका ए वारदात पर मौंते भी हो रही थी| पैगाम ए अमन तो ख्वाबों में भी नहीं था, महफिलों में भी अब नफरत ए दास्तां होती थी| अमन और मुहब्बत तो सब किस्से बन गये, अब तो रातें भी वीरानियों के मंजर में सोती थीं