बंद आँखों से "मैं" का जब पर्दा हटाया, कहने और करने में बड़ा फ़र्क पाया। सब समझने के वहम में जीता रहा "मैं", सच में समझ तो कुछ भी नहीं आया। रहा व्यस्त इतना सच्चाई की लाश ढोने में, कि जिंदा झूठ अपना समझ नहीं आया। कारण ढूँढता रहा हर सुख दुख में, अकारण मुझे कुछ नज़र नहीं आया। ढूँढता रहा सब जगह कुछ पाने की ललक से, जो मिला ही हुआ है वो ध्यान में ना आया। फँसता गया सब झंझटों में आसानी से, सरलता को कभी अपनाना नहीं चाहा। झूठ ही झूठ में उलझा हुआ पाया, आंखों से जब जब पर्दा हटाया। ~ #ShubhankarThinks
चैन और सुकून से भरा था मुहल्ला, आवाम ए हिन्द बडी मौज में रहती थी| महफिल ए शायरी करते थे लोग वहां, मुशायरे में होती थीं रौनकें जहां की! कोई शमा मुजलिस में मशगूल होती थी| मुफलिसी में रहते थे वो फकीर वहां के, मगर उनकी बातों में भी अमीरी सी होती थी| हुस्न ए अदा थी तहजीब में उनके, तालीम की पहचान भी अदब बातों से होती थी | एक बाज की नजर ए बाद थी बस्ती पर , उसे आवाम के चैन अमन से तकलीफ सी होती थी| कुदरत का बदस्तूर जमाने पर नागवार गुजरा, उस बाज ने कुछ नापाक तरकीब सी सोची थी| एक जगह थी सबके पानी पीने की, जहां मुहब्बत अदब से सबकी भरपाई होती थी| मजहबी जहर को मिलाया था पानी में , अब पानी की जरूरत तो लगभग सभी को होती थी| पानी पीना जंग ए मैदान बन गया , अब पानी के लिए लोगों में तकरार सी होती थीं| धीरे धीरे जहर असर दिखाने लगा था, बाज की तरकीब अब कामयाब हो रही थी| तकरारों का सिलसिला रफ्तार से बढा फिर, अब मौका ए वारदात पर मौंते भी हो रही थी| पैगाम ए अमन तो ख्वाबों में भी नहीं था, महफिलों में भी अब नफरत ए दास्तां होती थी| अमन और मुहब्बत तो सब किस्से बन गये, अब तो रातें भी वीरानियों के मंजर में सोती थीं